स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय – Swami Vivekananda

Swami Vivekananda - स्वामी विवेकानंद

इस पोस्ट में हम आपको स्वामी विवेकानंद ( Swami Vivekananda ) जी की जीवनी के बारे में बतायेंगे –

स्वामी विवेकानंद जी का जीवन परिचय :-

पूरा नाम नरेंद्र नाथ विश्वनाथ दत्त
जन्म 12 जनवरी 1863
पिता का नाम विश्वनाथ दत्त
माता का नाम भुनेश्वरी देवी
मृत्यु 8 जुलाई 1902
स्वामी विवेकानंद का पूरा नाम नरेंद्र नाथ विश्वनाथ दत्ता था।
इनका जन्म :- पश्चिम बंगाल कोलकाता के एक कुलीन उद्धार परिवार में हुआ था उनके नौ भाई-बहन थे।

स्वामी विवेकानंद जी का बचपन :-

उनके पिताजी विश्वनाथ दत्त कोलकाता के कोर्ट में अटानी जनरल थे वो वकालत करते थे। Swami Vivekananda की माता जी भुनेश्वरी देवी सरल एवं धार्मिक विचारों वाली महिला थी। स्वामी विवेकानंद के दादा दुर्गा दत्त संस्कृत के विद्वान थे। जिन्होंने 25 वर्ष की उम्र में ही अपना परिवार और घर त्याग कर सन्यासी जीवन स्वीकार किया था।
नरेंद्र बचपन से ही शरारती और कुसांग्र बुद्धि के थे उनके माता-पिता को उन्हें कई बार समझाने में परेशानी होती थी। बचपन में उन्हें वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और वेदांत अपनी माता से सुनने का शौक था, और कुश्ती में उनकी रुचि थी। परिवार के धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण के कारण से नरेंद्र के बचपन से ही उनके मन में ईश्वर के बारे में जानने और उन्हें प्राप्त करने की इच्छा थी।

शिक्षा :-

सन 1871 में 8 साल की उम्र में उन्होंने ईश्वरचंद्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया था। सन 1877 में इनका परिवार रायपुर चला गया था। प्रेज़िडेंसी कॉलेज में स्वामी विवेकानंद जी ने  प्रथम स्थान प्राप्त किया था जिसमें सबसे ज्यादा नंबर लाना बहुत ही गर्व की बात थी।
वह दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य के सभी विषयों में अच्छे पाठक थे। स्वामी विवेकानंद भारतीय शास्त्रीय संगीत में और खेलकूद, व्यायाम में भी रुचि रखते थे। उन्होंने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेंबली कांस्टिट्यूशन में किया था। 1884 में कला स्थानक की पूरी डिग्री हासिल कर ली थी।

आध्यात्मिक शिक्षा :-

सन 1880 में स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म को रामकृष्ण के प्रभाव से अपनाया था।

निष्ठा :-

इनकी निष्ठा बहुत अच्छी थी अपने गुरु के प्रति, अपने माता पिता के प्रति, अपने देश के प्रति अच्छी निष्ठा रखते थे।

सम्मेलन भाषण :-

एक अच्छे चरित्र का निर्माण हज़ारों बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।
इन के भाषण सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे जब यह भाषण की शुरुआत करते मेरे भाइयों और बहनों इतनी सी बात कहते ही सारी जनता मंत्रमुग्ध हो जाती थी।
उन्होंने भाषण में कहा है कि आपने हमारा स्वागत किया इसके लिए मैं अपने हृदय से प्रणाम करता हूं मैं संसार के सन्यासी परंपरा की ओर से धन्यवाद देता हूं और सभी मतों को और हिंदुओं को कोठी-कोठी धन्यवाद देता हूं। स्वामी विवेकानंद जी अपने भाषणों में श्लोकों का भी प्रयोग करते थे।
जैसे :-

रूचीनां वैचित्र्याटजुकुटिलनानापथजुणाम ।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इन ।।
अर्थात जैसे विभिन्न नदियों विभिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है उसी प्रकार भिन्न भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेडे-मेडे रास्ते अर्थात सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं यानी ईश्वर के मैं ही मिल जाते हैं।
ये यथा मां प्रपधन्ते तांस्लथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्भानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।।
अर्थात जो कोई मेरी और आता है जो किसी भी प्रकार से हो। मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग विभिन्न प्रयत्न करते हुए मेरे पास ही आते हैं। इससे पता चलता है कि स्वामी विवेकानंद जी की भगवान के प्रति गहरी आस्था थी। इसलिए वे जन जागरण के माध्यम से युवाओं में जोश भरने का काम करते थे।

यात्राएँ :-

जब स्वामी विवेकानंद 24 वर्ष की आयु के थे तब उन्होंने गेरवा वस्त्र धारण कर लिया था। उनके बाद पैदल ही भारत  वर्ष कि यात्रा करने लगे थे।

शिकांगो यात्रा :-

21 मई 1893 को अपनी यात्रा शुरू की और जापान के कई शहरों जैसे नागासाकी और इसके बाद चीन, कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकांगो में 1813 में पहुंचे थे।
वहां पर शिकांगो में उनका सम्मेलन हो रहा था। स्वामी विवेकानंद भाग लेने के लिए भारत की ओर से प्रतिनिधित्व करने के लिए पहुंचे थे। उस समय यूरोप के लोग भारत के लोगों को बड़ी हीन दृष्टि से देखते थे। एक अमेरिकन प्रोफेसर ने स्वामी विवेकानंद जी को उस सम्मेलन में बोलने का समय दिया था।

ऐतिहासिक भाषण :-

जब Swami Vivekananda ने बोलना शुरू किया था तो उस सम्मेलन में मौजूद सभी विद्वान चकित हो गए थे। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ और उनके भक्तों का एक बहुत बड़ा समुदाय बन गया था और वहां पर 3 वर्षों तक वहीं रहे और भारतीये के लोगों को ज्ञान दिया था। वहां की मीडिया ने स्वामी विवेकानंद जी को साईकॉलोनीक हिंदू का नाम दे दिया था।
Swami Vivekananda का कहना था कि विश्व में आध्यात्मिकता नहीं होगी तो विश्व का अंत हो जाएगा। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन के अनेक शाखाओं की स्थापना की थी। अनेक अमेरिकी विद्वानों ने उनकी शाखाओं को पूर्ण रूप से ग्रहण भी किया था। स्वामी विवेकानंद को गरीबों का सेवक कहा जाता था। भारत के गौरव को देश में ऊंचा करने के लिए सदैव प्रयत्न करते थे। वह जहां भी जाते भारत की गौरव गाथाऐ गाया करते थे। वह हमेशा भारत को आगे रखते थे।

स्वामी विवेकानंद जी का योगदान और महत्व :-

स्वामी विवेकानंद जी मुंबई से गेटवे ऑफ इंडिया के निकट में स्थित है।
इन्होंने कम उम्र में जो काम किया है वह बहुत सराहनीय कदम है। यह काम बहुत बड़ी उपलब्धि है। 30 वर्ष की अवस्था में इन्होंने शिकांगो (अमेरिका) में विश्व दल की बैठक में भारत का प्रतिनिधित्व किया और भारत को सार्वभौमिक पहचान दिलाई थी।
ठाकुर रविंद्र नाथ जी का कहना हे। कि यदि आप भारत को जानना चाहते है। तो स्वामी विवेकानंद जी के योगदान में को पड़ा। इसमें आप सकारात्मक गुण ही देखेंगे कुछ भी नकारात्मक नहीं देखगे। वे केवल संत ही नहीं थे वह एक महान देशभक्त और विचारक, लेखक एवं मानव प्रेमी विदित है।

अमेरिका के बाद :-

जब वह अमेरिका से लौटे थे तब उन्होंने देश का आह्वान करते हुए कहा था कि नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, कारखाने से, हाट से, बाजार से और निकल पड़े पहाड़ों से पर्वतों से और जनता ने स्वामी विवेकानंद की पुकार जवाब दिया और निकल पड़े थे। गांधीजी को जो जनसमर्थन मिला था। वह स्वामी विवेकानंद जी के आह्वान से ही मिला था। इस कारण से ही वह भारतीय स्वतंत्रता के लिए प्रेरणादायक स्त्रोत बने थे। उनको विश्वास था कि भारतवर्ष धर्म और दर्शन की पुण्य भूमि है। यहां पर बड़े-बड़े मुनियों ओर ऋषियों का जन्म हुआ है। यही सन्यास और और त्याग की भूमि है।
यहीं पर मनुष्य की मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनका कहना था कि उठो जागो और सब जाकर औरो को जगाओ। अपने मनुष्य जीवन को सफल बनाओ। जब तक लक्ष्य प्राप्त ना हो 19वीं सदी के आखिरी में सहस्त्र और हिंसक क्रांति के जरिए भी देश को आजाद कराना चाहते थे परंतु उन्हें जल्दी ही विश्वास हो गया था कि परिस्थितियाँ उन इरादों के लिए अभी परिपक्व नहीं है। इसके बाद Swami Vivekananda जी ने एकता से चलो की नीति अपनाई थी। स्वामी विवेकानंद जी ने पुरोहित, धार्मिक, आडंबरो और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उनका धर्म मनुष्य की सेवा करना था।

स्वामी विवेकानंद जी की मृत्यु :-

8 जुलाई 1902 में हुई थी। स्वामी विवेकानंद ने अपने प्राण त्यागते समय कहा था कि मुझे एक Swami Vivekananda चाहिए।

स्वामी विवेकानंद के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धांत :-

  1. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक विकास हो सके।
  2. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो सके। मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने।
  3. बालक और बालिकाओं को समान शिक्षा देनी चाहिए।
  4. धार्मिक शिक्षा पुस्तको द्वारा न देखकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
  5. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों का स्थान देना चाहिए।
  6. शिक्षा, गुरु ग्रह से प्राप्त की जा सकती है।
  7. शिक्षक और छात्र का संबंध अधिक से अधिक निकट होना चाहिए।
  8.  सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रसार एवं प्रचार किया जाना चाहिए।
  9. देश की आर्थिक प्रगति के लिए “तकनीकी शिक्षा” की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  10. मालवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू होनी चाहिए।
एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगंध विदेशों में बिखरने वाले Swami Vivekananda साहित्य दर्शन और इतिहास के प्रकांड विद्वान थे। श्री रामकृष्ण परमहंस से प्रभावित होकर वे आस्तिक्ता की ओर उन्मुख हुए थे और 1890 में उन्होंने भारत में घूम-घूम कर ज्ञान की ज्योति जलानी शुरू कर दी थी।

महत्व बिंदु

31 मई 1863 को शिकांगो में सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने गए थे।
11 सितंबर को उन्होंने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया जिसके समक्ष विश्व के ज्ञानियों का सिर श्रद्धा से झुक गया था।
1895 में वे इंग्लैंड रवाना हुए और वहां भी भारतीय धर्म और दर्शन का प्रसार किया था।
1897 में भारतीयों की सेवा के लिए उन्होंने भारत में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी तथा अमेरिका में उन्होंने वेदांत सोसाइटी की स्थापना की थी। स्वामी विवेकानंद ने हमेशा भारतीयों को अपनी संस्कृति और राष्ट्रीयता का सम्मान करने की प्रेरणा दी थी।
16 वर्ष की आयु में उन्होंने कोलकाता से एंट्रेस की परीक्षा पास की अपने शिक्षा काल में वे सर्वाधिक लोकप्रिय और एक जिज्ञासु छात्र थे किंतु हर्बर्त स्पेन्सर के नास्तिकता का उनपर पुरा प्रभाव था। श्री रामकृष्ण परमहंस से मिलकर वे महाआस्तिक Swami Vivekananda में बदल गए परमहंस जी की मृत्यु के बाद उन्होंने भारतीय अध्यात्मक और मानव प्रेम प्रचार का दायित्व अपने कंधों पर उठा लिया था। योग, राजयोग, और ज्ञानयोग जैसे ग्रंथों की रचना करके Swami Vivekananda ने युवा जगत को एक नई राह दिखाई है। जिसका प्रभाव जनमानस पर युगों-युगों तक छाया रहेगा। कन्याकुमारी मे निर्मित उनका स्मारक आज भी उनकी महानता की कहानी का प्रतीक चिन्ह् है ।

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1 thought on “स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय – Swami Vivekananda”

  1. स्वामी जी के जीवन परिचय से ज्यादातर लोग परिचित हैं और वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध भी है .. लेकिन अगर इंटरनेट पर आभाव है तो वह है सही जानकारी का .. आपने न सिर्फ सही जानकारी को पाठकों के सम्मुख रखा है बल्कि लेख को सुन्दर शब्दों से भी पिरोया है .. यही एक लेखक की विशेषकर ब्लॉगर की खासियत होती है .. आशा है आप आगे भी इसी तरह से महान व्यक्तित्वों का जीवन परिचय युवाओं के सम्मुख रखते रहेंगे और उन्हें प्रेरित करते रहेंगें …
    शुभकामनाये ..

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